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"मैं" चल पड़ा ("I" goes on)

 
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काश... आख़िर में आता बचपन (Wish childhood was at the end...)

  (Originally written by myself in Hindi in the above pictures) Jumping, dancing, hopping, skipping, Screaming, shouting, swaggering it passes by. No reason for arrival, none for departure,  Only when it's gone, we realize the distance afar. Wish childhood was at the end... Troublesome even after it's gone,  Silent about 

भरोसा

उस रात अजीब सी बात हुई, मेरी ख़ुद से मुलाक़ात हुई ।  वक़्त के आईने बहते रहे, मेरी ख़ामोशी सहते रहे ।  देखता रहा अक्स अपना, थकान भरी नज़रें थम गयीं । हिम्मत लगी नज़र उठाने में, ख़ुद से नज़र भी मिलाई ।

समय से बातचीत

  आज सुबह फिर मुझे समय मिल गया, कुछ धीमा हुआ और दौड़ पड़ा | साथ दौड़ते हुए मैने पूछा - "क्षण क्षण तू बढ़ता और ढलता है, अस्तित्व का पहिया तेरे काँधे पर चलता है | आखिर कौन है तेरा दोस्त?" समय ने गहरी साँस ली, फिर बोला - "मेरा और तेरा दोस्त है परिवर्तन जिसके दो पहलू हैं - बदलाव और विकास | बदलाव पर तेरा बाल नहीं, वह उसकी फ़ितरत है | दिन, महीना, साल, सदी निकल जाना कुदरत है | विकास की कहानी अलग है, वो मेरे साथ भी है और तेरे साथ भी | तू हर क्षण बदलेगा, लेकिन तेरा विकास तेरे हाथ है | तू चाहेगा तो विकास तेरा दोस्त है, लेकिन तू ललचा गया तो तेरा विकास ही तेरा सबसे बड़ा क्षत्रु भी है |"  मैने कुछ देर सोचा, फिर पूछा - "चाहत और लालच में फ़र्क कैसे करूँ मैं? क्या जीवन को बेहतर करने की चाहत भी लालच है?" समय अट्टहास लगाते हुए बोला - "जीवन को बेहतर बना लेकिन दिशा का ध्यान रख | विकास मन से शुरू होकर बाहर की ओर चलता है तब वह तेरा दोस्त होता है | अपने अंदर से शुरू करते हुए जीवन को बेहतर बनाते जाना ही विकास की दोस्ती निभाना है | तब बदलाव तुझे तंग नहीं करेगा, तेरे साथ मुस्क

नदी किनारे वाला

    लहरों के दर्पण में ढूंढ रहा है एक सच , जो शायद ज़िन्दगी के किनारे से कहीं दूर बह गया । धुंधली सी परछाई बार बार बदल रही थी , उजड़ रही थी।

Longings and belonging...

I have been stationed at my hometown with the entire family for past couple of months now. Never had I ever imagined that I will get to live with family for a prolonged period such as this. Nor had I imagined that I will fit in without grinds and chings.           The last I remember of living with my family was 14 years ago. I had just completed Class Xth exams and was about to dive headfirst into a world of joy. The huge summer months stretched before me along with a plethora of hormones to wreak havoc upon my world. The dry, harsh winds seemed pure bliss and I had my steady steed, a gleaming blue 'Hercules Y-series' bicycle (codenamed "Mercedes"), well-oiled to concur the horizon. The cellphone had not disrupted lives yet and I adored riding Mercedes to the lake across town.

Self-styled crassness and Memebai Police

    For past few months now,  I have surprised myself. Not only have I managed to give up one of the very few great habits, the crassness and smooth slide into lethargy have been impressive & consistent. They say a well-rounded gut is a sign of a happy man. My happiness seems to be growing in leaps and bounds of late. You know you have come of age in life when little kids on the street ask you the time by deliberately calling you "Uncle".  And I go on to tell them the wrong time, because sadistic pleasures are rare.

Fountainheads...

Juxtaposition

It has been more than 10 months since I last wrote.  What can I say, life has thrown a lot of experiences at me. While I have caught some of them deftly, some others have hit me hard.  Personally, I am at peace. Most emotions seem sorted out, clarity of space both outside and within... However, living by myself for prolonged periods of time has rendered me slightly difficult to share living space with others. I always found solace in singularity. And living with loved ones at closed quarters after 11 years threw it all out of the window. I am yet to come to terms with it... Hope the closure comes soon.  Professionally, I have absorbed an ocean of knowledge in the past year. From a technical noob I have transformed into an assistant manager somehow. The journey, however brief, had its own share of bumps and potholes. An experience worth sharing was the personal interview I faced after applying for Post Graduate Programme in Management for Executives (PGPX) at the Indian Inst

सादर प्रणाम श्री नरेंद्र मोदी जी|

आदरणीय श्री नरेन्द्र मोदी जी, इस महान देश के साधारण नागरिक की ओर से आपको कोटि-कोटि प्रणाम! अपने परिचय में मैं बस इतना कहूँगा कि मैं एक मेकॅनिकल इंजिनियर हूँ और पिछले ४ वर्षों से ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री में कार्यरत हूँ| इंजिनियरिंग की पढ़ाई मैने अबीट्स पिलानी के गोआ कॅंपस से संपूर्ण की और उसके ठीक बाद ही नौकरी में लग गया| मेरी उम्र २७ वर्ष है और मेरे परिवार में माँ, पिताजी, भैया एवं भाभी हैं| मैं मध्य प्रदेश में जबलपुर नामक शहर से हूँ और फिलहाल मुंबई में रह रहा हूँ| देश के लिए आपने अब तक जितना कुछ कर दिखाया है एवं आगे भी करते जा रहे हैं उसको देखकर आपने मेरी सोच में बेहद परिवर्तन कर दिया है| आज से ठीक २ साल पहले मैं इस देश से बाहर जाकर अपनी मास्टर्स की पढ़ाई करना चाहता था और अमेरिका या फ्रांस जैसे किसी देश में बस जाना चाहता था| अब इसे मुक़द्दर कहूँ या फिर बदक़िस्मती यह नहीं समझ आता, क्योंकि मैने ४ यूनिवर्सिटीस में अप्लिकेशन भेजी लेकिन एक में भी मेरे दाख़िला न हो सका| किसी ने कहा की मेरी पढ़ाई के नंबर कम हैं तो किसी ने कहा कि बाकी क लोगों की प्रोफाइल ज़्यादा मज़बूत है| इस कारण से मै

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