लहरों के दर्पण में ढूंढ रहा है एक सच,
जो
शायद ज़िन्दगी के किनारे से
कहीं दूर बह गया
।
धुंधली सी परछाई बार बार बदल रही थी, उजड़ रही थी।
नदी
की गहराई में गिरने पर
संभल रही थी ।
पानी
के राज़ बयान हुए,
घबराई सभी मछलियां,
जब
अंदर सोते चट्टान उठ
खड़े हुए।
"देख मुझे,
मैं तेरा ही हिस्सा
हूं।
भूख,
प्यास, शांति और समाज का
क़िस्सा हूं।
तुझसे
ही मैं शुरू होता
हूं,
तुझमें
ही मैं समा जाता
हूं।
कभी
थक जाता हूं तो
तुझे ढूंढता हूं, गला गीला
करता हूं और फिर
चल पड़ता हूं।
सफर
ख़त्म होता है तो
आखिरी सांस लेता हूं।
कुछ
जलता हूं और कुछ
तुझमें समा जाता हूं।
अजीब
है हिसाब, जिंदगी भर का उधार
मृत्यु से चुकाता हूं।"
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